मानवता चित्रकथा-इंसानियत और भरोसे की कहानी

पिता की मृत्यु के प्रणव को सहारा दिया एक अनजान व्यक्ति ने। परन्तु वर्षों बाद प्रणव को पता चला एक ऐसा सच जिससे उसके पैरों के नीचे की ज़मीन ही खिसक गई। क्या था वह सच ,आइए पढ़े मानवता चित्रकथा-इंसानियत और भरोसे की कहानी Hindi story image में  


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इंसानियत और भरोसे की कहानी

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इस best चित्रकथा में प्रस्तुत है एक दिल को छू लेने वाली कहानी। बहुत समय पहले की बात है, किसी नगर में रामदास नाम का एक व्यक्ति रहता था। वह शहर से सामान खरीदता था और गांव में जाकर बेच देता था। बहुत ज्यादा बचत तो नहीं होती थी, परंतु घर का गुजारा चल ही रहा था, दाल रोटी का इंतजाम हो रहा था। वह इसी में खुश था।


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एक साधारण जीवन जीता था रामदास 

रामदास के परिवार में उसकी पत्नी मनोरमा और एक किशोर पुत्र प्रणव था, जो कि विद्यालय में विद्या प्राप्त कर रहा था। पत्नी एक साधारण गृहणी थी जो कि, रामदास जितना भी कमा कर लाता, उसी में खुश थी। परिवार की जरूरतें ज्यादा नहीं थी। वे बस साधारण से तरीके से जीवन यापन करते थे और वे उसमें संतुष्ट थे।

समय बड़ा बलवान 

परंतु विधि को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन अचानक रामदास को हल्का बुखार आया। वैद्य जी को दिखाकर दवा ले ली, परंतु बुखार था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। फिर वह बुखार धीरे-धीरे बढ़ता गया। अनेक इलाज करवाने के बाद भी रामदास ठीक न हो पाया। और कुछ दिन के पश्चात एक अज्ञात बीमारी से रामदास की मृत्यु हो गई।


मृत्यु एक ऐसा कड़वा सच है जिसके आगे मनुष्य की कोई नहीं चलती। बस सब्र करके बैठना पड़ता है। ऐसा ही उसकी पत्नी मनोरमा ने किया। परंतु अब समस्या यह थी कि घर का कमाने वाला सदस्य रामदास ही था, जो कि चला गया। पुत्र तो अभी छोटा ही था और वह विद्यालय में पढ़ रहा था।


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कैसे हो गुज़ारा

एक तो पहले ही रामदास की बीमारी पर काफी धन खर्च हो चुका था। घर का गुजारा चलाने के लिए जो भी थोड़ी- बहुत बचत थी, वह भी धीरे-धीरे करके समाप्त हो गई। फिर घर का कुछ कीमती सामान, जो रामदास ने अपनी मेहनत से बनाया था, वह भी एक-एक करके बिक गया।

आखिरी रास्ता  

अंततः एक दिन मनोरमा ने अपने बेटे प्रणव को बुलाया और कंगन की एक जोड़ी देते हुए कहा, ' बेटा, गहनों के नाम पर मेरे पास केवल एक यही कंगन की जोड़ी है, जो तुम्हारे पिता ने अपनी मेहनत की पाई-पाई जोड़कर मुझे बना कर दी थी। मैंने यह भविष्य की किसी जरूरत के लिए संभाल कर रखी थी। परंतु अब से बुरा समय भी क्या ही होगा, जबकि हम रोटी को भी मोहताज हो गए हैं। अब इनको ही बेच देते हैं ताकि कुछ दिनों की रोटी तो चल सके।'


प्रणव ने कहा, - ठीक है मां, परंतु हम इनको कहां बेचने जाएं?

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तब मनोरमा ने उसको कहा, - तुम्हें याद तो होगा बेटा, तुम्हारे पिता के एक मित्र हैं, जो जौहरी हैं। एक बार वे हम दोनों को उनके घर भी लेकर गए थे। मुझे तो एक वही विश्वास वाले इंसान नजर आते हैं। उनके अलावा तो कोई इन कंगनों का मोल नहीं लगा पाएगा। तुम ये कंगन लेकर उन्ही के पास जाओ और उन्हीं को दिखाओ। वे जो भी इसके बदले में दें, वही इनका सही दाम होगा। उसे तुम सुरक्षित घर ले आना।

क्या बिक जाएंगे मनोरमा के कंगन 

इस प्रकार प्रणव अपनी मां के कंगन लेकर अपने दिवंगत पिता के जौहरी मित्र के पास पहुंचा, जिनका नाम मनोहर राय था। हांलांकि प्रणव के मन में उनके पास जाने से पहले एक झिझक थी कि इतने बड़े जौहरी पता नहीं मुझसे कैसा व्यवहार करेंगे परंतु प्रणव को देखकर वे तुरंत उसे पहचान गए और उसे हाथों-हाथ लिया। इसके बाद प्रणव ने अपने आने का मंतव्य बताया और उनको अपनी मां के कंगन दिखाएं।


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मनोहर राय जौहरी निकले नेकदिल 

मनोहर राय ने कंगनों का बड़ी बारीकी से निरीक्षण किया। वे कंगनों को देखकर कुछ देर कुछ सोचते रहे और फिर प्रणव से बोले, - यह बात सच है कि मैं इन कंगनों की अच्छी कीमत तुम्हें दे दूंगा। परंतु तुम मुझे एक बात बताओ। जो धन तुम इन कंगनों को बेच कर लेकर जाओगे, उससे तुम्हारा कितने दिन का घर का खर्च चल जाएगा?


प्रणव सोच में पड़ गया। उसके पास मनोहर राय के सवाल का कोई निश्चित जवाब नहीं था। उसे चुप देखकर मनोहर राय फिर बोले, - मैं तुम्हें बताता हूं बेटा। ज्यादा से ज्यादा तुम छह माह तक उस धन से अपने घर का खर्च चला पाओगे। लेकिन फिर उसके बाद क्या करोगे?

मनोहर राय जौहरी ने चुना सच्चा मोती

प्रणव अब फिर चुप था। तब मनोहर लाल ने कहा, - अब तुम ध्यान से मेरी बात सुनो। ये कंगन अभी तुम वापस ले जाओ और अपनी मां को दे दो। इनको बेच देना समस्या का समाधान नहीं है। इस समय तुम्हारी समस्या है कि तुम्हें हर महीने एक निश्चित कमाई की जरूरत है।


वे आगे बोले, - जैसा कि तुम जानते हो, मैं रत्नों और मोतियों की बहुत अच्छी परख रखता हूं। साथ ही साथ सोने और चांदी का भी बहुत ज्ञान है। यह मैं अपने बारे में घमंड नहीं करता बल्कि यह सच्चाई है। इस बात से तो तुम भी इनकार नहीं कर सकते। तभी तो तुम भी शहर के सभी जौहरियों को छोड़कर केवल मेरे पास आए हो।


मैं यह अपना ज्ञान किसी को देना चाहता हूं,जो कि मुझसे रत्न-मोतियों और सोने चांदी का तो ज्ञान प्राप्त करेगा ही, साथ ही साथ व्यापार में भी मेरा हाथ बटाएं।

प्रणव बहुत ध्यान से उनकी बात सुन रहा था और वे बोल रहे थे, -वैसे तो मेरे दो पुत्र हैं। परंतु वे दोनों ही मेरे इस व्यापार में रुचि नहीं रखते। तो जिनको मेरे इस काम में रुचि नहीं है, उन पर जबरदस्ती कोई चीज थोपना मुझे ठीक नहीं लगता। उन दोनों ने ही अपने-अपने पसंद का व्यापार चुन लिया है। उनका व्यापार अच्छा चल रहा है और वे उससे संतुष्ट हैं।


तुम अब इतनी शिक्षा तो प्राप्त कर ही चुके हो कि तुम हिसाब-किताब अच्छे से कर सकते हो। लिखा-पढ़ी भी कर सकते हो।

यदि तुम चाहो तो मेरे पास नौकरी कर सकते हो। मैं तुम्हें हर माह लगी बंधी तनख्वाह दूंगा, जिससे तुम्हारे घर का गुजारा अच्छा चल जाएगा। साथ ही साथ तुम्हें रत्न-मोतियों और सोने चांदी का भी ज्ञान प्राप्त हो जाएगा। तुम चाहो तो अपनी पढ़ाई भी साथ-साथ कर सकते हो। मुझसे ज्ञान प्राप्त करके तुम एक प्रवीण जौहरी बन सकते हो और भविष्य में तुम अपना खुद का एक अच्छा व्यापार खड़ा कर सकते हो।

 क्या प्रणव ने स्वीकारा प्रस्ताव 

अब प्रणव ने यह सारी बात अपनी माता को बताई। उसकी मां को भी इसमें कोई बुराई नजर नहीं आई। और फिर प्रणव ने भी सोचा कि वास्तव में कंगन को बेच देना कोई रास्ता नहीं है। हमें हर माह यदि कुछ धन मिलता है तो हमारा घर अच्छे से चल जाएगा। और जौहरी का ज्ञान प्राप्त करके मेरा भविष्य भी सुरक्षित हो जाएगा और मुझे अन्य कोई व्यापार ढूंढने की भी चिंता नहीं रहेगी।


इस तरह अपनी माता की सहमति के साथ प्रणव ने मनोहर राय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और उनके पास नौकरी करने लगा। इस प्रकार अब उनके घर में हर माह घर खर्च के लायक धन आ जाता था।

जैसा कि मनोहर राय ने कहा था, वे उसको अपनी कला सिखाने वाले थे, उन्होंने अपना वायदा पूरा किया और धीरे-धीरे अपने व्यापार के गुर राघव को सिखाने लगे।

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लम्बा समय बीता

इस बात को दस वर्ष बीत चुके थे। राघव अब एक नवयुवक बन चुका था और अपनी शिक्षा समाप्त कर चुका था। साथ ही साथ मनोहर राय से रत्न-मोतियों का और सोने-चांदी का भी सारा ज्ञान प्राप्त कर चुका था। अब वह एक नामचीन जौहरी बन चुका था, जो की एक ही नजर में देखकर रत्न की पहचान कर लेता था और छूने भर से बता देता था की सोना खरा है या खोटा।


वास्तव में चेला गुरु से एक कदम आगे ही निकला था। उसकी प्रसिद्धि मनोहर राय से भी अधिक हो गई थी। तरह-तरह के रत्न जड़ित गहने बनाने में उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता सकता था। 


जहां एक तरफ मनोहर राय ने अपना वायदा निभाया था और उसको अपना पूरा ज्ञान सिखा दिया था, वहीं दूसरी ओर प्रणव ने भी पूरी सत्यता और निष्ठा के साथ अपनी नौकरी शुरू की थी और मनोहर राय की कला को सीखना शुरू किया था। शुरुआत के कुछ वर्षों तक तो प्रणव नौकरी ही करता रहा था परंतु फिर मनोहर राय ने प्रणव की कर्तव्य निष्ठा, सच्चा चरित्र और ईमानदारी देखकर उसको अपने व्यापार में साझेदार बना लिया था।


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दिन बदले  

और आज अब प्रणव की आर्थिक स्थिति भी बहुत सुधर गई थी। घर में किसी भी प्रकार की धन-धान्य की कमी नहीं थी। गरीबी और तंगी के दिन तो बहुत पीछे ही कहीं छूट चुके थे।


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सच आया सामने 

ऐसे ही एक दिन काम का अवकाश था जब प्रणव दोपहरी में अपने घर में जब आराम कर रहा था। विचारों के घोड़े बीते दिनों की तरह दौड़ पड़े। और वह याद करने लगा कि किस प्रकार से उसने काम सीखना शुरू किया था और किस प्रकार आज वह एक पारंगत जौहरी बन चुका था।


अचानक से उसको उन कंगनों की याद आई तो उसके मन में उन कंगनों को परखने की इच्छा जागी। अब तो वह एक पारंगत जौहरी बन चुका था, और उन कंगनों का सही मूल्य वह स्वयं भी लगा सकता था। इसलिए उसने अपनी मां से उन कंगनों को मांगा।


जब उसने कंगनों को अपने हाथ में पकड़ कर देखा तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गई। कंगनों को हाथ में पकड़ कर मनोहर राय के घर की तरफ भागा। पीछे से मां आवाज लगाती रह गई, - अरे, भोजन तो कर जाता।

अब भोजन रात को ही करूंगा मां, एक आवश्यक काम आ पड़ा है।- इतना कह कर वह जल्दी से घर से निकल गया।


मनोहर राय के पास पहुंचा तो वे आराम कुर्सी पर आंखें बंद करके बैठे थे। आंखों में आंसू भरकर हाथ में कंगन लिए प्रणव मनोहर राय के पैरों में गिर पड़ा।


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मनोहर राय ने जब आंखें खोल कर प्रणव को देखा और उसके हाथ में कंगनों को देखा तो वे सारा मामला समझ गए।

आंसू थे कि रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। मनोहर राय ने प्रणव को अपने पास पड़ी तिपाई पर आराम से बिठाया और उसको सहज किया। प्रणव अभी भी बिलकुल चुप था। उसके मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। बस वह एक छोटे बच्चों की तरह सुबकियां भर रहा था।

फिर प्रणव ने स्वयं को संयत किया और पूछा, -आपने मुझे यह बात तभी क्यों नहीं बता दी कि ये कंगन नकली हैं?

मनोहर राय थे मानवता का सच्चा उदाहरण 

इस पर मनोहर राय ने कहा, -कैसे बता देता? तुम इतनी आशा के साथ मेरे पास आए थे। तुम्हारी मां ने अपनी सबसे कीमती चीज देकर तुम्हें मेरे पास भेजा था। तो मैं यह कैसे कह देता कि ये कंगन नकली है?

फिर वे बोले, - बेटा, यह दुनिया का दस्तूर है, गरीब की कीमती चीज की भी कोई कीमत नहीं होती और अमीर की साधारण सी वस्तु भी करोड़ों में बिकती है। उस समय अगर मैं तुम्हें कहता कि ये कंगन नकली हैं तो तुम और तुम्हारी मां यही सोचती कि मैं तुम्हारे हालात का फायदा उठाना चाहता हूं।


प्रणव ध्यान से उनकी एक-एक बात सुन रहा था। वे फिर बोले, -और फिर दुनिया का दस्तूर चाहे जो भी रहे, मैं उसे तो बदल नहीं सकता, लेकिन अपना रास्ता तो मैं स्वयं चुन हीं सकता हूं। और मैने यही रास्ता चुना कि मैं सहारा देकर तुम्हें तुम्हारे पैरों पर खड़ा कर दूं।


उन्होंने आगे कहा, -एक गुरु का यही कर्तव्य होता है कि वह अपने शिष्य को ज्ञान दे। मैंने भी वही किया। मुझे तुम अपने ज्ञान को देने के लिए एक योग्य पात्र लगे, इसलिए मैंने यह निश्चय किया कि मैं तुम्हें सिखाऊं। और तुम आज जो भी हो वह तुम्हारी अपनी स्वयं की मेहनत का फल है। तुमने पूरी ईमानदारी से मेरी दी हुई शिक्षा को ग्रहण किया। इसलिए आज तुम इतने सफल हो।

मनोहर राय ने यह क्या मांग लिया 

और प्रणव, अब समय है कि तुम मुझे गुरु दक्षिणा दो। - उन्होंने कहा।


आप जो कहें। -  प्रणव ने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा।

अब मनोहर राय अपनी जगह से उठे और दूर मेज की दराज में से कुछ निकाल कर लाये और प्रणव के हाथ में लाकर रख दिया और बोले, - यह लो दुकान की चाबियां। अब से तुम ही संभालो यह व्यापार और मुझे छुट्टी दो।


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परंतु यह कैसे हो सकता है? - प्रणव की हैरानी की कोई सीमा नहीं थी। वह असमंजस में पड़ गया था।

क्यों नहीं हो सकता? यह धन मैंने यहीं पर कमाया और यहीं पर छोड़ कर जाना है। तो फिर क्यों ना हो यह व्यापार मैं एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में दूं जो इसको नई ऊंचाइयों पर लेकर जाएगा। मेरे दोनों ही पुत्र अपनी-अपनी जगह अपने व्यापार में खुश है। उनको मेरे व्यापार में न तो कोई रुचि है और न ही कोई ज्ञान। ऐसे में उनके हाथ में यह सब सौंप देना मतलब मेरी सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। जबकि अगर मैं तुम्हें यह सब सौंपता हूं तो मैं जानता हूं, यह ज्ञान आगे तक जाएगा।-  वे प्रणव को समझाते हुए बोले।

सब कुछ सौंप दिया प्रणव को 

मैने एक गृहस्थ व्यक्ति की सभी जिम्मेदारियां पूरी कर दी है। अपने पुत्रों और अपने पौत्र- पौत्रियों के लिए इतने धन की व्यवस्था कर दी है कि वे सब आराम से अपना जीवन व्यतीत कर सकते हैं। मैंने भी इस धन का बहुत भोग किया है। परंतु अब मैं अपना परलोक सुधारना चाहता हूं। इतना धन अभी भी मेरे पास है कि मेरा शेष जीवन बिना कुछ काम किये आराम से गुजर जाएगा। 


और फिर अपरिग्रह का नियम भी यही कहता है कि आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना चाहिए, चाहे फिर वह धन हो या कोई अन्य वस्तु। अब मैं अपना शेष जीवन ईश्वर की भक्ति में लीन रहकर बिताना चाहता हूं। आशा करता हूं तुम मुझे यह गुरु दक्षिणा अवश्य दोगे।

क्या है ईश्वर की सच्ची भक्ति 

और मैं तुमसे यह चाहता हूं कि तुम इस ज्ञान को अपने तक सीमित मत रखना। जिस तरह से तुम रत्नों और मोतियों को पारखी नजरों से परखते हो, उन्हीं पारखी नजरों से परख कर किसी सुपात्र को चुनकर यह ज्ञान तुम आगे फैलाना, फिर चाहे वह तुम्हारी संतान हो या कोई और। क्योंकि अगर कुपात्र में के हाथों में यह ज्ञान गया तो वह समाज का बहुत बड़ा नुकसान कर सकता है। और यदि तुम्हें जीवन में कोई ऐसा व्यक्ति मिले, जिसको तुम्हारी मदद की आवश्यकता हो तो उसकी मदद करने से पीछे ही मत हटना। यही ईश्वर के प्रति तुम्हारी सच्ची भक्ति होगी और मानवता की सच्ची सेवा।


और इस प्रकार मनोहर राय ने अपना सारा व्यापार प्रणव को सौंप दिया। प्रणव ने भी मनोहर राय जी की इच्छा का सम्मान करते हुए हमेशा जरूरतमंद व्यक्तियों की मदद की और सच्चे और ईमानदार सुपात्र चुनकर इस ज्ञान को आगे बढ़ाया।

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शिक्षा:-  

इस Hindi story image मानवता best चित्रकथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मानवता की सेवा ही सच्ची ईश्वर भक्ति है।


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