धोखेबाज व्यक्ति यह भूल जाता है कि हर किसी का एक गुरु होता है। ठगीबाजी करके बहुत खुश होता है, लेकिन जब उसको खुद को कोई ठग के निकल जाता है तब उसे समझ में आता है कि धोखेबाजी होती क्या है? एक ऐसी ही रोचक कहानी है यह Hindi story for kids.
Hindi story for kids सेर को सवा सेर
बहुत वर्षों पहले की बात है, भारत के सूरजपुर राज्य में नीलगढ़ नाम का एक छोटा सा नगर था।
यह उस समय की बात है जब राजाओं के राज हुआ करते थे।नीलगढ़ एक बहुत ही शांत और सुंदर नगर था। यहां के अधिकतर नागरिक बहुत सुसभ्य और ईमानदार थे। इसी नगर में करमा और मनसा दो घनिष्ठ मित्र रहते थे।
मनसा के साथ हुआ धोखा
एक दिन मनसा अपने मित्र करमा के पास आया। वह बहुत परेशान दिख रहा था। जब करमा ने उससे कारण पूछा तो उसने सारी बात बतलाई।
मानसा ने करमा को बताया कि दूसरे नगर से एक हीरो का व्यापारी हमारे नगर में आया है। परंतु वह एक नंबर का बेईमान आदमी है। उसने मुझसे मेरी मेहनत की कमाई की पचास स्वर्ण मुद्राएं धोखे से हड़प ली हैं और वह अब अपनी गलती मान नहीं रहा है।
क्या है धोखाधड़ी का मामला
करमा ने कहा कि मुझे सारी बात विस्तार से बताओ। मनसा ने बताया कि तीन-चार दिन पहले वह अपनी पत्नी की सोने की माला में टांका लगवाने के लिए चरण कुमार सुनार के पास गया था।
वहां पर एक कुलीन और संभ्रांत दिखने वाला व्यक्ति बैठा था। फिर मुझे पता चला कि वह हीरो का व्यापारी था और दूर नगर से चरण कुमार सुनार को हीरे बेचने के लिए आया था। जो हीरे वह दिखा रहा था उनमें से एक रत्न मुझे भी बहुत पसंद आया, परंतु उसकी कीमत बहुत अधिक थी। उस रत्न को खरीदने का विचार वहीं छोड़कर मैं बस अपनी पत्नी की माला चरण कुमार सुनार को सौंप कर वहां से वापस आ गया।
मनसा ने खरीदा एक कीमती रत्न
मैंने भी सोचा कि यह निवेश का एक अच्छा मौका है। फिर मैंने उस रत्न की चरण कुमार सुनार से भी जांच करवाई तो उसने भी यही कहा कि रत्न कीमती है और आने वाले समय में ऊंचे दामों पर बिक जाएगा। उसने भी मुझे यही सलाह दी कि मुझे यह रत्न खरीद लेना चाहिए। इसलिए मैंने वह रत्न खरीद लिया।
लेकिन आज सुबह मेरी बहन मेरे घर आई। अपने पति के व्यापार को बढ़ाने के लिए उसने मुझसे आर्थिक मदद की प्रार्थना की।
व्यापारी निकला धोखेबाज
मनसा आगे बोला - मुझे नहीं पता कि उस व्यापारी ने कब धोखे से असली रत्न को नकली रत्न से बदल दिया और मुझे नकली रत्न थमा दिया। चरण कुमार सुनार कहता है कि यह वह रत्न ही नहीं है जिसकी जांच मैंने पहले की थी। देखने में यह रत्न बिल्कुल असली रत्न जैसा है, परंतु यह वह नहीं है। फिर मैं उस व्यापारी के पास गया जो पास ही की एक सराय में ठहरा हुआ है। परंतु वह तो साफ ही मुकर गया।
करमा ने कहा - कहीं ऐसा तो नहीं कि वह चरण कुमार सुनार उस हीरों के व्यापारी के साथ मिला हो।
सुनार तो है निर्दोष
ऐसा सोच कर वे दोनो चरण कुमार सुनार की दुकान पर पहुंचे। उनकी बात सुनकर चरण कुमार सुनार बोला - मुझे बहुत ही खेद है कि आपके साथ धोखा हुआ। परंतु अगर मैं अपनी बात करूं तो मैंने बहुत वर्षों तक ईमानदारी से व्यापार करके इस शहर में अपनी एक साख बनाई है। एक बार की गई बेईमानी मेरे चरित्र को धूमिल कर देगी और इतने वर्षों तक की गई मेरी मेहनत पर पानी फेर देगी, मेरा व्यापार चौपट कर देगी। क्या आप लोगों को मैं इतना मूर्ख लगता हूं?
फिर वह आगे बोला - रही बात उस व्यापारी की तो मैं भी उसे उतना ही जानता हूं जितना कि आप। वह किसी दूर नगर से आया था। उसने मुझे कुछ रत्न बेचे और उनकी उचित कीमत मैंने दे दी। इससे अधिक उसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता।
करमा और मनसा को चरण कुमार सुनार के तर्क में सच्चाई नजर आई। मनसा ने करमा से कहा - क्यों न हम महाराज से उस व्यापारी की शिकायत करें?
अब क्या करेगा करमा
करमा कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला - हमारे पास उस व्यापारी के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं है।जहाँ पर बुद्धि के प्रयोग से काम बन सकता हो वहाँ बल का प्रयोग नहीं करना चाहिए। महाराज के पास जाने की बजाय हम स्वयं ही उसको सबक सिखाएंगे। मेरे पास एक योजना है।
करमा ने मनसा को सारी योजना समझा दी। अब करमा एक धनी व्यापारी का भेष बदलकर उस व्यापारी के पास पहुंचा और बोला - श्रीमान मैंने सुना है आप बहुमूल्य रत्नों के व्यापारी हैं। जी! आप ने ठीक सुना है।- व्यापारी ने उत्तर दिया।
तब करमा ने कहा - मैं भी रत्नो का करोबार शुरु करना चाहता हूं। परंतु मुझे कहीं से भी सही मार्गदर्शन नहीं मिल रहा है। इसी लिए मैं आपके पास आया हूं कि यदि आप मेरी कुछ सहायता करें तो मुझे इस विषय में कुछ आवश्यक बातें पता चल सकतीं हैं।
व्यापारी ने नहीं दिया करमा को भाव
परंतु उस व्यापारी ने अनमने मन से और टालने वाले अंदाज में कहा - हां ठीक है। अभी मैं कुछ और दिन इस नगर में ठहरने वाला हूं। परंतु अभी मुझे कुछ आवश्यक काम है, तो मैं कहीं जा रहा हूं। आप फिर किसी और दिन आ जाइए।
तभी करमा ने एक गुप्त इशारा कर दिया और वहीं आसपास भेष बदल कर छुपा हुआ मनसा बाहर आया।उसने भी इस तरह का भेष बनाया हुआ था कि कोई उसको पहचान नहीं सकता था।
करमा ने फेंका चारा
मनसा ने आकर करमा से कहा - श्रीमान आप जो कल मेरे सेठ जी की दुकान से कपड़ा खरीद कर ले गए थे, उसमें गलती से पांच स्वर्ण मुद्राएं कम देकर गए थे। आपके घर जाने पर पता लगा कि आप यहां आएं हैं। इसलिए मैं उस पैसे की वसूली के लिए आया हूं। कृपया मुझे मेरी बकाया मुद्राएं दे दीजिए।
इस पर करमा ने अपनी जेब में से एक विचित्र प्रकार का सिक्का निकाला और भेष बदले हुए मनसा की हथेली पर रखकर वापिस उठा लिया और अपनी जेब में रख लिया और बोला - तो मिल गई आपको आपकी मुद्राएं?
जी श्रीमान!- यह कह कर मनसा वहां से चला गया।
अब करमा ने उस व्यापारी से कहा - तो ठीक है श्रीमान। जब आपके पास समय होगा मैं आ जाऊंगा। इतना कह कर वह वहां से चल पड़ा।
परंतु करमा और मनसा के बीच क्या हुआ, यह सारा दृश्य उस हीरों का व्यापारी ने देखा। सब कुछ देख कर वह बहुत ही हैरान हुआ कि यह क्या हुआ! देने वाले ने मुद्राएं दी ही नहीं और लेने वाले को मुद्राएं मिल भी गईं। यह भुगतान का कैसा विचित्र तरीका है।
तीर लगा निशाने पर
पीछे खड़ा हुआ व्यापारी अंचभित और भ्रमित था। तभी कुछ सोच कर वह वहां से जाते हुए करमा की ओर लपका और उसे पीछे से पुकारा - अरे सुनिए! रुकिए श्रीमान।
तेज़-तेज़ क़दमों से चलते हुए वह करमा के पास पहुंच गया और उसके साथ-साथ चलने लगा। वह बोला - वैसे इतना भी कोई आवश्यक काम नहीं है मुझे। मैं सोच रहा हूं कि क्यों न कुछ बातें आज ही समझा दूं आपको। चलिए हम वापिस मेरी सराय में चलते हैं।
अब वे दोनों चलते चलते मुख्य सड़क तक आ गए थे जहां पर की खाने पीने की और विभिन्न तरह की चीजों की बहुत सारी दुकानें थी।
उसकी बात सुनकर करमा बोला, नहीं ऐसी कोई जल्दी भी नहीं है। आप मुझे कल बता दीजिएगा। मैं कल आ जाऊंगा।
व्यापारी करमा के पीछे -पीछे
लेकिन वह व्यापारी बार-बार करमा पर जोर डाल रहा था कि वह वापस उसके साथ सराय में चले।
इतने में करमा एक हलवाई की दुकान के आगे रुक गया और बोला- चलिए पहले कुछ खा लेते हैं बहुत भूख लगी है।
करमा ने अपने लिए और उस व्यापारी के लिए हलवाई से दूध जलेबी ले ली और वहीं बिछी हुई एक तिपाई पर बैठकर दोनों खाने लगे। इसके बाद करमा ने इमरतियां भी मंगवाईं, दोनों ने वहीं बैठकर वह भी खाई।
खाने के बाद करमा ने व्यापारी से पूछा -आप कुछ और लेना पसंद करेंगे? तब व्यापारी ने कहा - नहीं बहुत हुआ। बस अब आप चलिए मेरे साथ। इतना कह कर वह व्यापारी हवाई के पैसे अदा करने के लिए अपनी जेब में से अपना बटुआ निकालने लगा। उसकी मंशा समझ कर करमा ने उसको कहा - नहीं नहीं रुकिए! आपको पैसे देने की आवश्यकता नहीं है। ठहरिए! मैं देता हूं। यह कहकर उसने हलवाई से पूछा - हां भाई कितने पैसे हुए?
व्यापारी हो रहा है हैरान परेशान
अब करमा ने अपनी जेब से वही अजीब सा सिक्का निकला और हलवाई की तरफ बढ़ाया। हलवाई ने अपनी हथेली कीमत लेने के लिए फैलाई तो करमा ने सिक्का उसकी हथेली से छुआ कर वापस अपनी जेब में रख लिया और बोला - ठीक है भाई साहब, हो गई कीमत चुकता? हलवाई बोला - जी श्रीमान, धन्यवाद।
तब करमा ने कहा - अब हम इतनी दूर निकल आए हैं और मेरे पास सामान भी बहुत ज्यादा है। चलिए यही कहीं बैठकर बात कर लेते हैं। फिर वे पास के एक बगीचे में चले गए।
वहां पर उस व्यापारी ने करमा को कुछ काम चलाऊ बातें समझाईं। करमा उसके मंतव्य को साफ-साफ समझ रहा था कि वह किसी भी तरह से उस सिक्के के बारे में जानना चाहता है, और मन ही मन मुस्कुरा भी रहा था कि शिकार जाल में फंस चुका है, बस अब डोरी खींचने की देर है।
आखिर व्यापारी ने पूछा राज़
कुछ देर इधर-उधर कर की बातें करने के बाद वह व्यापारी अंतत: मुद्दे पर आ ही गया और मीठे स्वर में बोला -श्रीमान यदि आप बुरा ना माने तो एक बात पूछूं?
करमा ने हामी भारी तो वह बोला- मुझे एक बात समझ नहीं आई श्रीमान, आपने इतना सारा सामान खरीदा, परंतु उसके बदले में कोई भी कीमत अदा नहीं की। केवल एक ही सिक्का आप हथेली को छुआ भर देते हो और सामने वाले को लगता है कि आपने पैसे दे दिए। जबकि आपने तो वास्तव में दिए ही नहीं। यह क्या रहस्य है, मुझे कुछ समझ नहीं आया।
अब करमा लापरवाही से बोला - अरे, यह जादू का सिक्का है। जिस किसी को भी मैंने कुछ रुपए अदा करने हो, उसकी हथेली पर इसे छुआ भर दो तो उसको लगता है कि उसको पैसे मिल गए।
अब तो व्यापारी का मुंह खुला का खुला रह गया। वह हैरान होते हुए बोला- यह तो सरासर बेईमानी ही हुई ना।
इस पर करमा फिर से लापरवाही से बोला - हां हुई तो बेईमानी ही। तो मैं कौन सा राजा हरिश्चंद्र की संतान हूं। बेईमानी तो बेईमानी ही सही। आज के महंगाई के दौर में अपने परिवार की ज़रूरतें पूरी करना कितना मुश्किल हो गया है। ऐसे में अगर थोड़ी बेईमानी कर भी ली जाए तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। और फिर मैंने आज तक केवल अमीर दुकानदारों को ही तो ठगा है।
करमा का अगला पासा
फिर करमा एक ठंडी सांस भरकर उदासी भरे स्वर में बोला - लेकिन अब यह सिक्का मेरे किसी काम का नहीं रहेगा।
क्यों श्रीमान - व्यापारी ने उत्सुकता से पूछा।
यह सिक्का मुझे मेरी सेवा से खुश होकर एक जादूगर ने दिया था। लेकिन उन्होंने यह भी बताया था कि इस सिक्के का जादू मेरे लिए केवल एक वर्ष तक ही काम करेगा। हां अगर एक वर्ष बाद यदि मैं यह सिक्का किसी और को दे देता हूं तो फिर यह सिक्का उसके लिए भी एक वर्ष तक काम करेगा। इस तरह से यह सिलसिला चलता रहेगा।
और आज मेरे लिए इस सिक्के के जादू का अंतिम दिन है। वह फिर से एक ठंडी आह भरते हुए बोला - चलो! एक वर्ष तो बहुत ही अच्छा बीता। आगे की कौन जाने।
तो अब आप इस सिक्के का क्या करेंगे श्रीमान? - व्यापारी ने पूछा।
करमा उसके स्वर की अधीरता स्पष्ट रूप से महसूस कर रहा था। प्रत्यक्ष में वह मन मसोस कर बोला - करना क्या है, पड़ा रहेगा घर के किसी कोने में। लेकिन मैं इसे किसी और को नहीं दूंगा। उससे मेरा क्या फायदा। मेरे लिए इस सिक्के का जादू खत्म हो गया लेकिन मेरी ज़रूरतें तो खत्म नहीं हुई है ना। कोई और मौज करे और मैं बस देखता रहूं, इससे तो अच्छा है कि यह मेरे ही पास यूं ही बेकार पड़ा रहे।
और अगर फायदा हो तो? अब व्यापारी ने अपना पासा फेंका।
मतलब?- करमा उसका मंतव्य तो समझ गया था लेकिन बनावटी रूप से अनजान बनता हुए पूछा।
अब व्यापारी बहुत ही चिकनी चुपड़े स्वर में बोला - वो मैं कह रहा था कि मेरा एक प्रस्ताव है, माने ना माने आपकी मर्जी है, परंतु एक बार सुन लीजिए।
अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे
व्यापारी आगे बोला -आपके लिए तो यह सिक्का बेकार ही है, तो यदि आप इसको किसी को बेच देते हैं, तो उसके बदले आपको काफी धन मिल जाएगा। इस प्रकार यह सिक्का बेकार होते हुए भी आपका अच्छा फायदा करवा देगा। मैं इस सिक्के के बदले पचास स्वर्ण मुद्राएं देने के लिए तैयार हूं।
इस पर करमा बोला - नहीं मैंने तो सोच लिया है मैं यह किसी को नहीं दूंगा। आप मुझे माफ करें। अब व्यापारी बोला -आपको अगर पचास स्वर्ण मुद्राएं कम लग रही हैं तो मैं सौ स्वर्ण मुद्राएं देने के लिए तैयार हूं। जादू खत्म होने के बाद तो यह आपको एक भी पैसे का फायदा नहीं करवाने वाला। इस पर अगर यह जाते-जाते आपको सौ स्वर्ण मुद्राएं दिलवा रहा है तो आपको तो फायदा ही है।
इस प्रकार बहुत समझाने के बाद करमा वह सिक्का बेचने के लिए मान गया। फिर वह व्यापारी से बोला - ठीक है मैं यह सिक्का आपको सौ स्वर्ण मुद्राओं के बदले में बेचता हूं।
परंतु इस सिक्के के बारे में दो महत्वपूर्ण बातें आपको जान लेनी आवश्यक है। पहली बात यह सिक्का केवल एक वर्ष तक ही आपके लिए काम करेगा। उसके बाद यह बेकार हो जाएगा। आप चाहे तो जिस तरह से मैं आपको बेच रहा हूं, आप आगे इसको बेच सकते हैं।
दूसरी बात यह सिक्का अपने मालिक के लिए केवल उसकी जन्मभूमि पर ही काम करेगा। मैं इसी नगर में पैदा हुआ, और इसी नगर में पला-बढ़ा ।यह नगर मेरी जन्मभूमि है, इसलिए यह सिक्का मेरे लिए काम करता रहा। परंतु आप परदेसी हैं, इसलिए आपके लिए यह सिक्का यहां इस नगर में काम नहीं करेगा। जिस नगर में आप रहते हैं, क्या वह आपकी जन्मभूमि है?
हां हां! वौ नगर जिसमें मैं रहता हूं, वही मेरी जन्मभूमि है ।कोई बात नहीं, वह अधीरता से बोला -यहां ना सही मेरे अपने नगर में तो यह सिक्का मेरे लिए काम करेगा ही। आप चिंता ना करें। यह कहकर उसने अपनी जेब में रखी हुई एक पोटली निकाली और उसमें से गिनकर सौ स्वर्ण मुद्राएं करमा को दे दी। लालच के कारण उसके दिमाग में किसी भी प्रकार का परीक्षण - निरीक्षण करने का विचार आया ही नहीं। जबकि सच तो यह था की करमा सभी दुकानदारों को पहले ही सारा भुगतान कर चुका था और उन सभी को मनसा के साथ हुए धोखे के बारे में बता कर अपनी योजना में शामिल भी कर चुका था।
आखिर मिला सेर को सवा सेर
अब करमा ने वह सिक्का अपनी जेब से निकाला और उसको अपनी मुट्ठी में बंद किया और आंख बंद करके बोला -हे धन रुपी मुद्रा, आज से आपका मेरे लिए कार्य खत्म हुआ। अब मैं आपको आपके नए मालिक को सौंपता हूं। कृपा करके जिस तरह से आपने मेरी हर आवश्यकता पूरी की है, एक वर्ष तक अपने नए मालिक की भी आवश्यकताएं पूरी कीजिए। अब आप अपने नए मालिक के साथ ही रहिए।
इतना कहकर करमा ने वह सिक्का उस व्यापारी को दे दिया। लालच में अंधा व्यापारी सिक्का पाकर बहुत ही खुश हुआ और खुशी-खुशी करमा का धन्यवाद करके अपनी सराय को लौट गया। करमा भी वहां से निकल कर वापस सीधा अपने मित्र मनसा के घर पहुंचा।
अंततः मनसा का नुकसान पूरा हुआ
मनसा अपने घर पहले ही पहुंच चुका था। अब करमा ने मनसा को वह अशर्फियों की पोटली थमाते हुए कहा -यह लो मित्र, तुम्हारे नुकसान की भरपाई मैंने कर ली है। इस पोटली में सौ स्वर्ण मुद्राएं हैं, संभालो इसे।
मनसा बोला -परंतु मेरा नुकसान तो केवल पचास स्वर्ण मुद्राओं का ही हुआ है। यह पचास अतिरिक्त मुद्राएं मुझे क्यों दे रहे हो?
इस पर करमा ने कहा - यह अतिरिक्त पचास स्वर्ण मुद्राएं उस मानसिक संताप की भरपाई के लिए है, जो तुमने उस व्यापारी की वजह से सहा।
इतना कहकर मनसा अपने घर लौट गया।
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