हमारे जीवन में कई घटनाएँ ऐसी होती हैं जो बाह्य रूप से सामान्य प्रतीत होती हैं, लेकिन उनके पीछे छिपे आध्यात्मिक संदेश हमें झकझोर कर रख सकते हैं। आज की यह hindi story एक ऐसे संन्यासी की है जो भगवान की खोज में था, पर एक सांसारिक वस्तु से ऐसा जुड़ गया कि उसकी साधना का मार्ग ही बदल गया।
कम्बल और कम्बल का कीड़ा: एक अद्भुत आत्मिक कथा
hindi story एक विरक्त संन्यासी और एक उपहार
एक शांत, एकांत जंगल में एक संन्यासी तपस्या करता था। उसका जीवन केवल एक लक्ष्य के इर्द-गिर्द घूमता था—ईश्वर की प्राप्ति। एक दिन एक राहगीर, जो एक व्यापारी था, विश्राम हेतु उसकी कुटिया में रुका। संन्यासी की सेवा और सरलता से प्रभावित होकर व्यापारी जाते समय उसे एक सुंदर, कोमल कम्बल भेंट में दे गया।
कम्बल से उपजा मोह
संन्यासी उस कम्बल से अत्यधिक प्रभावित हो गया। वह उसे बार-बार देखता, सहलाता और हर समय अपने पास रखता। धीरे-धीरे वह कम्बल उसके ध्यान और प्रेम का केंद्र बन गया। उसे चिंता सताने लगी कि कहीं कम्बल गंदा न हो जाए, कहीं कोई चुरा न ले।

जहाँ पहले उसके मन में परमात्मा सर्वोपरि थे, अब वहाँ कम्बल ने स्थान ले लिया था।
जब आसक्ति बन जाए बाधा
समय बीता। और अंततः जब मृत्यु का क्षण आया, तो संन्यासी के मन में आख़िरी विचार केवल कम्बल का ही था। श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता (8:5) में कहा है—

लेकिन इस संन्यासी के अंत समय में परमात्मा नहीं, कम्बल था। और इसलिए, अगला जन्म उसे पतंगे (कपड़े के कीड़े) के रूप में मिला—जो कम्बल खाता है। वह सौ जन्मों तक वही कीड़ा बन कर बार-बार जन्म लेता रहा, जब तक कि वह कम्बल पूरी तरह समाप्त नहीं हो गया।

ईश्वर की कृपा और हमारी छतरियाँ
अब यह प्रश्न उठता है—हमें जीवन में जो मिलता है, वह क्या ईश्वर की कृपा है या हमारे कर्मों का फल?
उत्तर है—ईश्वर की कृपा तो सदा और सबके लिए बह रही है, पर हम अपने मन में अनेक प्रकार के लोभ, मोह,भय और चिंताए पाल कर असंख्य आसक्ति रूपी 'छतरियाँ' खोल लेते हैं, जो हमें ईश्वर द्वारा बरसाई जाने वाली उस कृपा की बारिश में भीगने से रोक देती हैं।

हम वस्तुओं में सुख ढूंढते हैं, पर ईश्वर ने हमें उस आनंद को अस्थायी बनाने के लिए ही रचा है ताकि हम उसकी शाश्वत खोज की ओर प्रेरित हों।
आसक्ति का स्वाभाविक परिणाम
जब हम किसी सांसारिक वस्तु से अत्यधिक जुड़ जाते हैं, तो वह धीरे-धीरे हमारे जीवन का केंद्र बन जाती है। परमात्मा को छोड़ किसी और को प्राथमिकता देना हमारी आत्मिक यात्रा को भटका सकता है। चाहे वह वस्तु कितनी भी सुंदर या उपयोगी क्यों न हो, यदि वह हमारे भीतर ईश्वर के स्थान को ले लेती है, तो हम भ्रमित हो जाते हैं।
ध्यान दो, क्या तुम्हारा "कम्बल" क्या है?
यह कहानी हमें एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने पर मजबूर करती है—क्या हमारे जीवन में कोई ऐसा कम्बल है जो हमारे परम लक्ष्य के बीच आ गया है?
क्या हम भी किसी वस्तु, व्यक्ति, भावना या विचार से ऐसे जुड़े हुए हैं कि ईश्वर हमारे जीवन के दूसरे स्थान पर पहुँच गए हैं?
समय रहते पहचानिए, और उस छतरी को समेट लीजिए जो आपको कृपा की वर्षा से वंचित कर रही है।
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