
श्री राम जी के लिए बनवास मांगने के लिए माता कैकई ने अपने दिल पर कितना बड़ा पत्थर रखा , यह कोई नहीं जानता। वह जानती थी कि वह जो करने जा रहीं हैं उसके लिए उन्हें कभी भी माफ़ी नहीं मिलेगी। फिर भी उन्होंने ऐसा किया। इसकी बहुत कीमत उन्होंने आजीवन चुकाई।आइये जानते हैं एक ऐसा सच Hindi story short धन्य है माता कैकेई में।
Hindi story short धन्य है माता कैकेई
यह Hindi story short माता कैकई के जीवन के कुछ ऐसे तथ्यों को बताती है, जिससे साधारण जन मानस बिल्कुल भी परिचित नहीं है। रामायण की कथा से कौन परिचित नहीं है। सभी जानते हैं कि रामायण में क्या हुआ था। राजा दशरथ की तीन रानियां थी। उन तीनों रानियों के चार पुत्र थे।
क्या जानते हैं सभी ?
बड़े पुत्र श्री राम को 14 वर्ष का वनवास झेलना पड़ा, जहां पर माता सीता का अपहरण रावण ने कर लिया। वहां से रावण को मार कर श्री राम जी ने इस पृथ्वी से अधर्म का नाश किया और माता सीता को सुरक्षित संग लिवा लाए।
परदे के पीछे का सच
संक्षेप में यही वह कहानी है जो कि सभी जानते हैं, परंतु सोचने वाली बात है कि तस्वीर का दूसरा रुख भी तो होता है। यह तो तस्वीर का एक रूप था जो सब ने देखा। आज मैं आपको दिखाती हूं तस्वीर का दूसरा रूप, जिसके बाद आप शायद सोचने पर भी मजबूर हो जाए कि जो भी होता है वह ईश्वर की मर्जी से ही होता है।
माता कैकेई ने क्यों माँगा श्री राम वनवास ?
'अध्यात्म रामायण' के अनुसार एक रात जब माता कैकेयी सो रहीं थी तो उनके स्वप्न में विप्र, धेनु, सुर, संत सब एक साथ हाथ जोड़ कर याचक बन कर आये। उन सभी ने माता के कैकेई से दीन स्वर में प्रार्थना की, 'हे माता कैकेयी, हम सब आपकी शरण में आये हैं। महाराजा दशरथ कुल परंपरा के अनुसार अपने सबसे प्रिय श्री राम को राजा का पद दे रहे हैं। परंतु राजा बनकर इस पृथ्वी पर राज करना नारायण के श्री राम अवतार का उद्देश्य कदापि नहीं है।
अगर प्रभु राजगद्दी पर बैठ गए तब उनके अवतार लेने का मूल कारण ही नष्ट हो जायेगा। माता, सम्पूर्ण पृथ्वी पर सिर्फ आप में ही ये साहस है कि आप राम से जुड़े अपयश का विष पी सकती हैं। कृपया प्रभु को जंगल भेजने का मार्ग बनाइए। यह पृथ्वी और इस पृथ्वी के लोग युगों-युगों से अपने उद्धार के लिए प्रभु की प्रतीक्षा में हैं। त्रिलोक स्वामी का उद्देश्य भूलोक का राजा बनना नहीं है। अगर वनवास ना हुआ तो राम इस लोक के 'प्रभु' ना हो पाएंगे माता।' ये कह कर उन सभी ने माता कैकई के चरण पकड़ लिए।
माता कैकेई हो गईं दुःखी
माता कैकेयी के आँखों से आँसू बहने लगे। दुःखी हृदय के साथ माता बोलीं - 'आने वाले युगों में लोग कहेंगे कि मैंने भरत के लिए राम को छोड़ दिया लेकिन असल में मैं राम के लिए आज भरत का त्याग कर रही हूँ। मुझे मालूम है इस निर्णय के बाद भरत मुझे कभी स्वीकार नहीं करेगा।'

माता कैकेई जानती थीं परिणाम
माता कैकेई यह जानतीं थी कि राम जनमानस को और अपने पिता को कितने प्रिय हैं। वह जानतीं थी कि जनमानस श्रीराम को ही अपने राजा के रूप में देखना चाहते हैं, फिर भी उन्होंने राजा दशरथ से राम के लिए वनवास मांगा।
वह अवश्य ही जानतीं थी कि उनके इस निर्णय से आने वाले युगो-युगो तक उनको श्री राम के वनवास जाने की अपराधिनी माना जाएगा। तो क्या यह सब जानकर भी उन्होंने ऐसा क्यों किया। एक गरिमामई, राजनीतिज्ञ और कुशल कूटनीतिज्ञ महारानी क्या यह नहीं जानती थी कि इस सब का परिणाम क्या होने वाला है।

माता कैकेई का त्याग
वास्तव में वे यह जानती थी, क्योंकि ऐसा ही विधि का विधान था। भगवान के अवतरण का उद्देश्य पूरा करने के लिए उनका वनवास जाना आवश्यक था। वह जानतीं थी कि ऐसा करने के बाद भरत, जो कि श्रीराम से बहुत प्यार करते थे, अपनी माता का त्याग कर देंगे। परंतु फिर भी उन्होंने ऐसा किया। इसलिए वें श्री राम के वन जाने का माध्यम बनी और युगों-युगों तक के लिए अपने लिए अपयश चुन लिया।

राजा दशरथ की दो और रानियां थी। कौशल्या और सुमित्रा। हमने अक्सर अपने आस-पास बहुत सी महिलाओं के नाम कौशल्या और सुमित्रा सुने होंगे परंतु किसी भी माता-पिता ने आज तक अपना पुत्री का नाम कैकेई नहीं रखा।

सभी ने यही जाना कि श्री राम को वनवास मिला माता केकई के कारण। परंतु माता कैकेई के त्याग को कोई ना समझ सका। धन्य है माता कैकेई। श्री राम को पैदा तो उनकी माता कौशल्या ने किया परंतु माता कैकई ने उनको मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया।
जब श्री राम के वन जाने पर भरत बहुत दुःखी रहा करते थे तो गुरु वशिष्ठ ने उनको यही समझाया कि -
सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ।
प्रभु श्रीराम इस लीला को जानते थे। इसीलिए चित्रकूट में तीनों माताओं के आने पर प्रभु ने सबसे पहले माता कैकेयी के पास पहुँच कर उनको प्रणाम किया। श्री राम ने कभी माता कैकेयी से घृणा नहीं की बल्कि हमेशा उन्हें अपनी अन्य माताओं की तरह ही आदर और सम्मान दिया।
COMPILED AND RETOLD BY - PUJA NANDA
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