
बुजुर्गों का सम्मान – एक दिल छू लेने वाली प्रेरणादायक हिंदी कहानी
एक भरा-पूरा घर... लेकिन खाली रिश्ते
दोपहर के तीन बजे थे। घर शांत था, लेकिन उस शांति में सूनापन था। हरिशंकर जी, जो कभी इस घर के कर्ता धर्ता हुआ करते थे, आज इस घर के बुजुर्ग हो गए हैं। समय बीतने के साथ जिम्मेदारियों का बोझ तो कम हुआ ही, क्योंकि उनका बेटा आर्थिक रूप से सम्पन्न हो गया, परंतु इसके साथ-साथ उनका महत्व भी कम हो गया और निर्णय लेने का अधिकार तो उनके हाथ से पूरी तरह फिसल चुका था। इस घर के यही सबसे बुजुर्ग सदस्य, धीरे से बहू के कमरे की ओर बढ़े।

एक हिचकिचाहट वाले स्वर में उन्होंने पूछा,- बहू, कुछ खाने को है क्या? उनकी आवाज़ में भूख कम और भीतर की पीड़ा ज़्यादा थी।
अंदर टीवी चल रहा था। रीमा, जो अपने पसंदीदा सीरियल में डूबी थी, बिना पलटे काट खाने वाले स्वर में बोली— ये भी कोई वक्त है खाने का? सुबह दलिया दिया था ना, अब बार-बार कौन बनाए? रसोई है कोई खाना बनाने की फैक्ट्री नहीं है।
हरिशंकर जी चुपचाप वापस लौट गए।
एक चुप गवाह — वृन्दा
घर की कामवाली वृन्दा यह सब देख रही थी। वह सोचने लगी —कितना बड़ा घर है, चार कारें, नौकर-चाकर, लेकिन दिल... वो किसी बंद तिजोरी में छिपा है। क्या इनको खाने - पीने की कमी है? लेकिन नीयत न हो तो कोई क्या ही देगा? काश! मेरे ससुरजी होते... तो मैं भी उनकी सेवा करती, ठीक ऐसे ही जैसे पापा की करती थी।
भूख नहीं, सम्मान की तलाश
वृन्दा को याद आया — रोज़ डाइनिंग टेबल पर पड़े फल और मेवे बर्बाद हो जाते हैं। बच्चे बर्गर-पिज्जा के दीवाने हैं। साहब को ऑफिस से फुर्सत नहीं और मालकिन रीमा को किटी पार्टी से। घर के सबसे बुजुर्ग सदस्य, हरिशंकर जी, जैसे सिर्फ एक छाया बनकर रह गए थे।
वृन्दा ने थोड़े मेवे सिलबट्टे पर पीसे, एक पका केला मसलकर दूध में मिलाया और चुपचाप हरिशंकर जी के पास पहुँची और सम्मान और दया सहित बोली, - बाबूजी, ये खा लीजिए। बहुत हल्का है और आपको भूख भी लग रही थी ना।

हरिशंकर जी की आँखें नम हो गईं। उन्होंने बिना बोले वह कटोरी थाम ली और जैसे हर निवाला सम्मान की मिठास से भरा हो।
जब सेवा दिल से हो
अब ये रोज़ की बात हो गई। वृन्दा चुपचाप दोपहर में ऐसा कुछ पौष्टिक बनाती और हरिशंकर जी को खिला देती। ना रीमा को खबर होती, ना घर के बाकी लोगों को।
बच्चों को कोई फर्क नहीं पड़ता था, उनके दादा क्या खा रहे हैं। बस उनकी आजादी में व्यवधान नहीं बनने चाहिए। सोचते कि दादाजी को अब लगता है कि मम्मी कुछ नहीं देती, इसलिए बाई से मांगते हैं। वहीं रीमा सोचती कि यह मेरी डांट का असर है, कि अब बेवक्त खाना मांगना बंद कर दिया है।पति समझता कि मेरी पत्नी ही करती होगी पापा की सेवा । सभी लोग सच्चाई से विमुख होकर एक मुखौटा लगाकर बस जिए जा रहे है कि पिताजी इस घर में बहुत सुख से हैं।

लेकिन कोई नहीं जानता था कि बुजुर्गों की सेवा तो वृन्दा कर रही है — जो न रिश्ते में थी, न ज़िम्मेदारी में। बस संस्कार में थी।
एक बुजुर्ग की मूक प्रार्थना
अब हरिशंकर जी ज़्यादा सोचते नहीं थे। बस एक प्रार्थना रोज़ उनके मन से निकलती...कि हे भगवान, अगला जन्म देना तो देना, पर बेटी या बहू देना तो वृन्दा जैसी देना, जो बिना कहे, बिना अधिकार सिर्फ संवेदनाओं से सेवा करे।

संस्कारों से भरी शिक्षा – बच्चों को बड़े का आदर सिखाइए
यह शिक्षाप्रद हिंदी कहानी बताती है कि घर केवल ईंट-पत्थर से नहीं, रिश्तों की गरिमा से बनता है। बुजुर्गों का सम्मान हमारी संस्कृति की जड़ है, जो बच्चों को भी मजबूत बनाती है। बच्चों को संस्कार सिखाना सिर्फ भाषणों से नहीं, अपने व्यवहार से होता है।
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यह प्रेरणादायक हिंदी कहानी एक लोकप्रचलित कथानक पर आधारित है, जिसका मूल लेखक अज्ञात है। इसे संकलित कर भावनात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है।
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