
अहिंसा, दयालुता, शालीनता, सद्भावना, सर्व धर्म समभाव जैसे गुण किसी भी व्यक्ति या राष्ट्र के लिए अमृत समान हैं। वह व्यक्ति और वह देश एक आदर्श हैं सारे समाज और सारे संसार के लिए। लेकिन यदि कोई दुश्मन सही ग़लत को भूलकर नैतिकता की सीमा पार कर नीचता पर उतर आता है तो मानवता और धर्म की रक्षा करने के लिए हिंसा करना और उस दुश्मन का समूल नाश कर देना व्यक्ति और राष्ट्र का परम कर्तव्य है। ऐसी ही एक fantasy story in hindi कालजयी का न्याय प्रस्तुत है आपके लिए।
जब दुष्टता सीमा पार करे, तो मौन भी अधर्म बन जाता है
कहाँ की है ये कहानी
बहुत समय पहले हिमगिरी पर्वतों की गोद में बसा था एक शांति से भरा राज्य — धवलपुर। वहाँ की नदियाँ चांदी-सी चमकती थीं, हवाएँ सुगंध से लदी होती थीं, और पक्षियों की बोली स्वर्गिक संगीत-सी लगती थी। राज्य में न्याय का बोलबाला था। प्रजा में सामंजस्य और सद्भाव था। सत्य का सम्मान था और सदाचार का पालन होता था।

धवलपुर की रानी सुधा देवी न केवल एक प्रजावत्सला शासिका थीं, बल्कि एक सिद्ध योगिनी भी थीं। उन्होंने राज्य में शांति, समानता और अहिंसा की जड़ें गहरी की थीं। यही नहीं, पड़ोसी राज्यों से भी बहुत सौहार्दपूर्ण संबंध बना कर रखें थे।
उनका मानना था कि अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है, लेकिन वह तब तक ही प्रभावी है जब तक अन्याय उसकी परीक्षा न ले।
उनकी बेटी राजकुमारी वासंती, उन्नीस वर्ष की तेजस्विनी युवती, अपनी माँ से भी अधिक कोमल और करुणामयी हृदय की थी।

वह प्रकृति से गहरे जुड़ी थी — पुष्पों से बातें करती, पशुओं को सहलाती, और हर जीव में ईश्वर का अंश देखती। उसने कभी तलवार नहीं छुई थी।
शांति की सीमा
वासंती हर पूर्णिमा को अपने दो प्रिय मित्रों — गंधर्वराज चितरंग और यक्षिनी मीनाक्षी — के साथ समीप के स्वर्णवन में भ्रमण करने जाती थी। यह वन बहुत रहस्यमय था। वहां की हवा में परोपकारी रहस्य था। वहाँ जादुई पेड़ बोलते थे और अपनी प्रिय वासंती के स्वागत में अपनी पत्तियों से उन रास्तों को ढक देते, जहां से वासंती गुजरती थी।

उस वन में रहने वाली परियां सभी रास्तों को रोशनी से भर देतीं और फूल अपनी खुशबु से पूरे जंगल को महका देते। जंगल के बीचोंबीच बहने वाली नदी अपने मीठे जल से वासंती और गंधर्वराज चितरंग और यक्षिनी मीनाक्षी की प्यास बुझाती थी । पूरा जंगल उन तीनों के आने की खुशी में उत्सव मनाता था। लेकिन इस बार, वन का वातावरण बदला-बदला सा था। चिड़ियाँ चुप थीं, पेड़ भय से थरथरा रहे थे। परियां भी ओट से निकल कर सामने नहीं आई।
चितरंग ने कहा, - कुछ अजीब है यहाँ, राजकुमारी। हवा भारी लग रही है।
मीनाक्षी ने भी अपने पंख समेटते हुए कहा, - मुझे किसी छाया की आहट सुनाई दे रही है। चलो लौट चलें।
तभी चकमक चिड़िया कहीं से उड़ती हुई आई और भय से कांपते स्वर में उन तीनों से बोली - चले जाओ। यहां से शीघ्र जाओ। प्राणों पर संकट है। आह! मैं जाती हूं। मेरे बच्चे अकेले हैं। यह कह कर वह अंधेरे में गायब हो गई।
पर देर हो चुकी थी
अचानक ज़मीन कांपी और एक गुफा से निकला भयंकर राक्षस — क्रूरासुर। उसका शरीर काले पत्थरों सा कठोर, आँखें अग्नि की तरह जलती हुई, और उसकी साँसें जैसे जहर उगलती थीं।

क्रूरासुर हँसा, - शांति? शांति तो निर्बलों का बहाना है। तुम्हारी यह दया मेरी भूख नहीं मिटा सकती, पर मुझे तुम्हारे राज्य तक अवश्य पहुँचा सकती है।
उसने तीनों को कैद कर लिया और एक अंधेरे महल में बंद कर दिया, जो राक्षसी जादू से बना था।
न्याय की पुकार
उधर जब नियत समय तक वासंती और उसके मित्र धवलपुर वापिस नहीं पहुँचे, तो राज्य में चिंता फैल गई। रानी सुधा ने तपस्या में बैठकर अपनी दिव्य दृष्टि से देखा — और सब जान कर उनकी आँखों से आँसू बह निकले।
रानी उसी समय गहरी रात में कुछ सैनिकों को लेकर क्रूरासुर से मिलने निकल पड़ी। स्वर्णवन आज विलाप करता महसूस हो रहा था। वृक्षों ने भय से अपनी शाखाओं को समेट लिया था। पुष्प मुरझा गए थे।
कुछ देर के लिए वहां एकदम सन्नाटा छा गया। फिर उस सन्नाटे को चीरती हुई क्रूरासुर की आवाज़ आई - यदि तुम्हारी प्रजा के पुरुष स्वेच्छा से बिना किसी दुःख और दबाव के अपने आप को मेरे देवता के सम्मुख बलि के लिए प्रस्तुत करते हैं तो मुझे अमरत्व प्राप्त होगा।

वह आगे बोला - यदि तुम अपनी प्रजा मुझे सौंप दोगी तो तुम्हारे राज्य की स्त्रियां और उनकी संतानें मेरे राज्य में सुरक्षित रहेंगी। इतना कहकर वह धूर्तता पूर्वक हंसा।
अब वह जंगल के अंधेरे में लुप्त हो गया।
तभी रानी के रथ के आसपास अंधेरे में एक दैवीय प्रकाश पुंज उत्पन्न हुआ। उस प्रकाश में उसे अपने दिवंगत पति राजा भानुशाली का चेहरा नज़र आया।

वह राज्य का सेनापति भूपसिंह था। लेकिन रानी तो जडवत खड़ी थी। भूपसिंह ने रानी की ऐसी हालत देख चिल्ला कर कहा, - रानी साहेब, होश में आइए। पूरे राज्य के ऊपर क्रूरासुर की भेजी बुरी आत्माएं चीत्कार करती हुईं मंडरा रही हैं। प्रजा भयभीत है। सेना आक्रमण के लिए तैयार खड़ी है।हमें सेना भेजने में विलम्ब नहीं करना चाहिए।
रानी भूपसिंह की तीक्ष्ण आवाज़ सुनकर मानो यथार्थ में लौटी। फिर रानी के चेहरे की बेचैनी और असहायता की जगह एक विश्वास भरी दृढ़ता ने ले ली। अब रानी सुधा ने सिर हिलाया — सेना नहीं, न्याय भेजना होगा।
न्याय का आवाहन
इतना कह कह रानी सुधा भूपसिंह के घोड़े पर सवार होकर शीघ्रता से वहां चली गईं प्राचीन गुफा की ओर — जहाँ धवलपुर की अंतिम आशा सो रही थी — कालजयी।
कालजयी कोई साधारण योद्धा नहीं था। वह एक दिव्य प्राणी था, आधा सिंह, आधा गरुड़। उसका जन्म स्वयं कालभैरव के रुद्रांश से हुआ था, और उसे केवल एक ही उद्देश्य से बनाया गया था — जब दुष्टता दया को कलंकित करे, तब न्याय को जगा देना।
उसे प्राप्त करने के लिए महाराज भानुशाली ने कठोर तपस्या करके भगवान काल भैरव से अपनी प्रजा और राज्य के लिए एक बलशाली, विशालकाय और आलौकिक शक्तियों से युक्त प्रहरी पाने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे।
कालजयी का जागरण
रानी सुधा ने वैदिक मन्त्रों के साथ कालजयी को पुकारा। पहाड़ हिले, गुफा चटखने लगी, और एक तेज रोशनी के साथ कालजयी प्रकट हुआ।

कालजयी आकाश में उड़ चला, उसकी गति बिजली से भी तेज थी।
अंत और उत्तर

तभी गगन से एक चमकती हुई किरण आई और महल के शिखर पर कालजयी प्रकट हुआ। जैसे ही कालजयी शिखर पर पहुँचता है, वहां एक प्राचीन शिलालेख चमक उठता है। उसका स्पर्श करते ही आकाश गरज उठता है, हवाएं थम जाती हैं… और तभी आकाशगामी दिशाओं से गूंजती है दिव्य देवताओं की संयुक्त वाणी
यह आवाज़ न तो नर की थी, न नारी की… यह स्वयं ऋतुओं, दिशाओं, अग्नि, जल और आकाश का सम्मिलित उच्चारण था।

कालजयी अब सीधे महल की मजबूत दीवारों को तोड़ता हुआ तीव्र वेग से महल के अंदर प्रविष्ट हुआ। परंतु चालाक मायावी क्रूरासुर ने वासंती को अपने आगे खड़ा कर लिया, - आ जा, दिव्य प्राणी! देख तेरा न्याय कैसे रुकता है एक कोमल कन्या से!
आत्मा की अग्नि – वासंती का दिव्य रूपांतरण

अंतिम टक्कर: रौशनी बनाम अंधकार
तब कालजयी धीरे से कहता है, - दया जब जागे… तो वह सृष्टि बदल देती है। और जब वह युद्ध करे… तो अंत तय होता है।
वासंती अपनी हथेली उठाकर अंतिम मंत्र बोलती है, -तमसो मा ज्योतिर्गमय।


अंतिम दृश्य
वासंती अब अपने स्वरूप से सामान्य हो जाती है, लेकिन उसका चेहरा दृढ़ है।
चितरंग उसका हाथ पकड़ता है, और कहता है — आज तू टूटी नहीं… तू बनी है। हमारे समय की रानी।
कालजयी, धीरे-धीरे एक छाया में बदलता हुआ, दूर क्षितिज की ओर बढ़ता है और आकाश में विलीन हो जाता है। और पीछे छोड़ जाता है एक मूक संदेश कि - जब भी कोई आत्मा अन्याय से जूझेगी… मैं लौटूंगा।
सूर्य उदय हो चुका है। धरती फिर से हरी है। लोग प्रफुल्लित हैं। वासंती अब बदल चुकी थी। उसकी आँखों में अब भी करुणा थी, पर उसके भीतर जाग चुका था विवेक। अब वह केवल राजकुमारी नहीं रही थी। वह यशस्विनी के रूप में जनमानस की चेतना बन गई थी — करुणा और साहस का समन्वय।

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