त्याग का परिणाम - आम से खास तक का सफ़र

कभी-कभी एक आम सा दिखने वाला आदमी जिंदगी की बहुत बड़ी सीख दे जाता है। कैसे? पढ़ें एक दिलचस्प दिल को छू लेने वाली कहानी moral story in hindi त्याग का परिणाम

moral story in hindi त्याग का परिणाम

आम से खास तक का सफ़र

एक अखबार वाला प्रात:काल लगभग 5 बजे जिस समय वह अख़बार देने आता था, उस समय मैं उसको अपने मकान की 'गैलरी' में टहलता हुआ मिल जाता था। अत: वह मेरे आवास के मुख्य द्वार के सामने चलती साइकिल से निकलते हुए मेरे आवास में अख़बार फेंकता और मुझको 'नमस्ते डॉक्टर साब' वाक्य से अभिवादन करता हुआ फर्राटे से आगे बढ़ जाता था।


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क्रमश: समय बीतने के साथ मेरे सोकर उठने का समय बदल कर प्रात: 7:00 बजे हो गया।


जब कई दिनों तक मैं उसको प्रात: नहीं दिखा तो एक रविवार को प्रात: लगभग 9:00 बजे वह मेरा कुशल-क्षेम लेने मेरे आवास पर आ गया। जब उसको ज्ञात हुआ कि घर में सब कुशल- मंगल है, मैं बस यूँ ही देर से उठने लगा था।


वह बड़े सविनय भाव से हाथ जोड़ कर बोला, - डॉक्टर साब! एक बात कहूँ?


मैंने कहा... - बोलो

वह बोला... - आप सुबह तड़के सोकर जगने की अपनी इतनी अच्छी आदत को क्यों बदल रहे हैं? आप के लिए ही मैं सुबह तड़के विधान सभा मार्ग से अख़बार उठा कर और फिर बहुत तेज़ी से साइकिल चला कर आप तक अपना पहला अख़बार देने आता हूँ...सोचता हूँ कि आप प्रतीक्षा कर रहे होंगे।


मैने विस्मय से पूछा... - और आप! विधान सभा मार्ग से अखबार लेकर आते हैं?


हाँ! सबसे पहला वितरण वहीं से प्रारम्भ होता है, - उसने उत्तर दिया।
तो फिर तुम जगते कितने बजे हो?


ढाई बजे.... फिर साढ़े तीन तक वहाँ पहुँच जाता हूँ।

फिर?- मैंने पूछा।
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फिर लगभग सात बजे अख़बार बाँट कर घर वापस आकर सो जाता हूँ..... फिर दस बजे कार्यालय...... अब बच्चों को बड़ा करने के लिए ये सब तो करना ही होता है।


मैं कुछ पलों तक उसकी ओर देखता रह गया और फिर बोला, - ठीक! तुम्हारे बहुमूल्य सुझाव को ध्यान में रखूँगा।

घटना को लगभग पन्द्रह वर्ष बीत गये। एक दिन प्रात: नौ बजे के लगभग वह मेरे आवास पर आकर एक निमंत्रण-पत्र देते हुए बोला, - डॉक्टर साब! बिटिया का विवाह है..... आप को सपरिवार आना है।


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निमंत्रण-पत्र के आवरण में अभिलेखित सामग्री को मैंने सरसरी निगाह से जो पढ़ा तो संकेत मिला कि किसी डाक्टर लड़की का किसी डाक्टर लड़के से परिणय का निमंत्रण था। तो जाने कैसे मेरे मुँह से निकल गया, - तुम्हारी लड़की?


उसने भी जाने मेरे इस प्रश्न का क्या अर्थ निकाल लिया कि विस्मय के साथ बोला, कैसी बात कर रहे हैं, डॉक्टर साबजी! मेरी ही बेटी।
मैं अपने को सम्भालते हुए और कुछ अपनी झेंप को मिटाते हुए बोला, - नहीं! मेरा तात्पर्य कि अपनी लड़की को तुम डाक्टर बना सके, इसी प्रसन्नता में वैसा कहा।


हाँ सरजी! लड़की ने मेकाहारा से एमबीबीएस किया है और उसका होने वाला पति भी वहीं से एमडी है ....... और सरजी! मेरा लड़का इंजीनियरिंग के अन्तिम वर्ष का छात्र है।


मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा सोच रहा था कि उससे अन्दर आकर बैठने को कहूँ कि न कहूँ कि वह स्वयम् बोला, - अच्छा सरजी! अब चलता हूँ..... अभी और कई कार्ड बाँटने हैं...... आप लोग आइयेगा अवश्य।


मैंने भी फिर सोचा आज अचानक अन्दर बैठने को कहने का आग्रह मात्र एक छलावा ही होगा। अत: औपचारिक नमस्ते कहकर मैंने उसे विदाई दे दी।


उस घटना के दो वर्षों के बाद जब वह मेरे आवास पर आया तो ज्ञात हुआ कि उसका बेटा जर्मनी में कहीं कार्यरत था। उत्सुक्तावश मैंने उससे प्रश्न कर ही डाला कि आखिर उसने अपनी सीमित आय में रहकर अपने बच्चों को वैसी उच्च शिक्षा कैसे दे डाली?


सर जी! इसकी बड़ी लम्बी कथा है फिर भी कुछ आप को बताये देता हूँ। अख़बार, नौकरी के अतिरिक्त भी मैं ख़ाली समय में कुछ न कुछ कमा लेता था। साथ ही अपने दैनिक व्यय पर इतना कड़ा अंकुश कि भोजन में सब्जी के नाम पर रात में बाज़ार में बची खुची कद्दू, लौकी, बैंगन जैसी मौसमी सस्ती-मद्दी सब्जी को ही खरीद कर घर पर लाकर बनायी जाती थी।


एक दिन मेरा लड़का परोसी गयी थाली की सामग्री देखकर रोने लगा और अपनी माँ से बोला, - ये क्या रोज़ बस वही कद्दू, बैंगन, लौकी, तरोई जैसी नीरस सब्ज़ी... रूख़ा-सूख़ा ख़ाना...... ऊब गया हूँ इसे खाते-खाते। अपने मित्रों के घर जाता हूँ तो वहाँ मटर-पनीर, कोफ़्ते, दम आलू आदि....। और यहाँ कि बस क्या कहूँ!


मैं सब सुन रहा था तो रहा न गया और मैं बड़े उदास मन से उसके पास जाकर बड़े प्यार से उसकी ओर देखा और फिर बोला, - पहले आँसू पोंछ फिर मैं आगे कुछ कहूँ।


मेरे ऐसा कहने पर उसने अपने आँसू स्वयम् पोछ लिये। फिर मैं बोला, - बेटा! सिर्फ़ अपनी थाली देख। दूसरे की देखेगा तो तेरी अपनी थाली भी चली जायेगी...... और सिर्फ़ अपनी ही थाली देखेगा तो क्या पता कि तेरी थाली किस स्तर तक अच्छी होती चली जाये। इस रूख़ी-सूख़ी थाली में मैं तेरा भविष्य देख रहा हूँ। इसका अनादर मत कर। इसमें जो कुछ भी परोसा गया है उसे मुस्करा कर खा ले ....।


उसने फिर मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा और जो कुछ भी परोसा गया था खा लिया। उसके बाद से मेरे किसी बच्चे ने मुझसे किसी भी प्रकार की कोई भी माँग नहीं रक्खी। डॉक्टर साब! आज का दिन बच्चों के उसी त्याग का परिणाम है।


उसकी बातों को मैं तन्मयता के साथ चुपचाप सुनता रहा।


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आज जब मैं यह संस्मरण लिख रहा हूँ तो यह भी सोच रहा हूँ कि आज के बच्चों की कैसी विकृत मानसिकता है कि वे अपने अभिभावकों की हैसियत पर दृष्टि डाले बिना उन पर ऊटपटाँग माँगों का दबाव डालते रहते हैं।


लेखक - एक अनजान दोस्त

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