परोपकार-सर्वोत्तम कर्म | गुरु ने समझाया अपने शिष्यों को परोपकार का महत्व |

short story with moral

परोपकार करने वाला सदैव ही ईश्वर का कृपा पात्र होता है। परोपकार के महत्व को एक गुरु ने किस प्रकार अपने शिष्यों को समझाया, एक बहुत ही सुन्दर वृत्तांत पढ़िए short story with moral परोपकार-सर्वोत्तम कर्म में


परोपकार -सर्वोत्तम कर्म short story with moral

गुरु ने समझाया अपने शिष्यों को परोपकार का महत्व

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बात गुरुकुल की

यह सदियों पुरानी उस समय की बात है, जब राजाओं के पुत्र और जन साधारण की संतानें अपने घरों से दूर गुरुकुल में रह कर शिक्षा प्राप्त करते थे। उसी समय के एक बहुत ज्ञानी और विख्यात ऋषि थे, ऋषि रघुवीर।


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वें गुरुकुल में बालकों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। उनके गुरुकुल में बड़े-बड़े राजा महाराजाओं के पुत्रों से लेकर साधारण परिवार के बालक भी पढ़ा करते थे।

शिक्षा हुई पूर्ण

वर्षों से शिक्षा प्राप्त कर रहे शिष्यों की शिक्षा आज पूर्ण हो रही थी। सभी बड़े उत्साह के साथ अपने-अपने घरों को लौटने की तैयारी कर रहे थे, कि तभी ऋषिवर की तेज आवाज सभी के कानो में पड़ी ,” आप सभी मैदान में एकत्रित हो जाएं। “आदेश सुनते ही शिष्यों ने ऐसा ही किया।


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ऋषिवर बोले - प्रिय शिष्यों , आज इस गुरुकुल में आपका अंतिम दिन है . मैं चाहता हूँ कि यहाँ से प्रस्थान करने से पहले आप सभी एक दौड़ में हिस्सा लें।

गुरु ने ली परीक्षा

वें आगे बोले - यह एक बाधा दौड़ होगी और इसमें आपको कहीं कूदना तो कहीं पानी में दौड़ना होगा, और इसके आखिरी हिस्से में आपको एक अँधेरी सुरंग से भी गुजरना पड़ेगा ।


तो क्या आप सब तैयार हैं ? -ऋषिवर ने पूछा।
जी गुरुदेव, हम तैयार हैं। - सभी शिष्य एक स्वर में बोले।
दौड़ शुरू हुई सभी तेजी से भागने लगे


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वे सभी बाधाओं को पार करते हुए अंत में सुरंग के पास पहुंचे वहाँ बहुत अँधेरा था और उसमे जगह – जगह नुकीले पत्थर भी पड़े थे, जिनके चुभने पर असहनीय पीड़ा का अनुभव होता था। सभी असमंजस में पड़ गए ,जहाँ अभी तक दौड़ में सभी एक सामान व्यवहार कर रहे थे, वहीँ अब सभी अलग -अलग व्यवहार करने लगे। खैर , सभी ने जैसे-तैसे दौड़ ख़त्म की और ऋषिवर के समक्ष एकत्रित हुए।

शिष्यों का आकलन

ऋषि ने प्रश्न किया -पुत्रों ! मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोगों ने दौड़ बहुत जल्दी पूरी कर ली और कुछ ने बहुत अधिक समय लिया। भला ऐसा क्यों ?


यह सुनकर एक शिष्य बोला - गुरु जी , हम सभी लगभग साथ –साथ ही दौड़ रहे थे पर सुरंग में पहुचते ही स्थिति बदल गयी। कोई दूसरे को धक्का देकर आगे निकलने में लगा हुआ था तो कोई संभल -संभल कर आगे बढ़ रहा था। और कुछ तो ऐसे भी थे जो पैरों में चुभ रहे पत्थरों को उठा -उठा कर अपनी जेब में रख ले रहे थे, ताकि बाद में आने वाले लोगों को पीड़ा ना सहनी पड़े, इसलिए सब ने अलग-अलग समय में दौड़ पूरी की।

परोपकार का पुरस्कार

ठीक है ! जिन लोगों ने पत्थर उठाये हैं, वे आगे आएं और मुझे वो पत्थर दिखाएँ - ऋषिवर ने आदेश दिया ।


आदेश सुनते ही कुछ शिष्य सामने आये और पत्थर निकालने लगे। पर ये क्या! जिन्हे वे पत्थर समझ रहे थे, वास्तव में वे बहुमूल्य हीरे थे। सभी आश्चर्य में पड़ गए और ऋषिवर की तरफ देखने लगे ।


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मैं जानता हूँ, आप लोग इन हीरों के देखकर आश्चर्य में पड़ गए हैं। - ऋषिवर बोले।
वास्तव में इन्हे मैंने ही उस सुरंग में डाला था,और यह दूसरों के विषय में सोचने वालों अर्थात परोपकार करने वाले शिष्यों को मेरा पुरस्कार है।

गुरुवर ने बताया जीवन-दर्शन

पुत्रों, यह दौड़ जीवन की भागम -भाग को दर्शाती है,जहाँ हर कोई कुछ न कुछ पाने के लिए भाग रहा है। पर अंत में वही सबसे समृद्ध होता है जो इस भागम -भाग में भी दूसरों के बारे में सोचने और उनका भला करने से नहीं चूकता है।


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अतः यहाँ से जाते -जाते इस बात को गाँठ बाँध लीजिये कि आप अपने जीवन में सफलता की जो इमारत खड़ी करें उसमे परोपकार की ईंटे लगाना कभी ना भूलें। अंततः वही आपकी सबसे अनमोल जमा-पूँजी होगी..!!


तत्पश्चात सभी शिष्यों ने अपने गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करके और इस नश्वर जीवन को सही दिशा में लेकर जाने के प्रण के साथ आश्रम से विदा ली।

शिक्षा

इस कहानी short story with moral परोपकार-सर्वोत्तम कर्म से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सभी प्राणियों में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो परोपकार का पुण्य कर्म कर सकता है। इसलिए परोपकार की भावना को साथ लेकर हमें अपने जीवन में आगे बढ़ना चाहिए।


    
COMPILED BY - PUJA NANDA
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