
अपने जीवन में हम कितनी बार दूसरों की निंदा करते हैं? अक्सर यह नहीं सोचते कि इसका हमारे खुद के जीवन पर क्या असर होगा। "निंदा का फल कहानी" ऐसी ही एक गूढ़ लेकिन गहरी सीख देने वाली हिंदी कथा है, जो हमें यह समझाती है कि निंदा करना केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि यह आत्मा पर बोझ डालने वाला कर्म है।
निंदा का फल कहानी – एक विचारशील प्रेरणा
राजा की सेवा और त्रासदी
पुराने समय की बात है। एक राजा ने निश्चय किया था कि वह प्रतिदिन सौ अंधों को ताजे दूध और उत्तम चावलों से बनी खीर खिलाया करेगा। बहुत वर्षों तक वह इस नियम को निभाता रहा। लेकिन एक दिन जब खीर बना कर सभी अंधे व्यक्तियों को खिलाई गयी तो खीर खाने के कुछ ही क्षणों के अंदर वे सभी मर गए।
सभी मृतकों के मुंह से झाग निकल रहा था। राजवैद्य को बुलाया गया तो उन्होंने यह पुष्टि की कि जो खीर सभी ने खाई है, वही जहरीली थी। और सभी के लक्षण सांप के जहर के लक्षण थे। जब खीर के बर्तन की जांच की गई तो बर्तन के तल पर एक मृतक सांप का शरीर चिपका मिला।

स्पष्ट था कि वह सर्प उबलती हुई खीर में गिर कर अपने प्राण गंवा बैठा और खीर भी जहरीली हो गई। इस बात से अनजान रहते हुए जब वही जहरीली खीर अंधों को परोसी गई, तो दुर्भाग्यवश सौ के सौ अंधे मर गए।
राजा को जब यह समाचार मिला, वह दुःख से टूट गया और मन ही मन पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा। उसको यह बात कचोटने लगी कि उसने अनजाने में सौ लोगों की हत्या कर दी। उस अपराध-बोध से ग्रस्त होकर वह जंगलों में चला गया, भगवान से क्षमा मांगने और तप करने के लिए।

एक भक्ति‑मय परिवार
जंगल के रास्ते में एक गाँव आया। रात होने को थी। गांव की चौपाल में कुछ लोग बैठे थे। राजा ने स्वयं को एक मुसाफिर बताया और उनसे एक रात के लिए आश्रय मांगा तो उन सभी ने यह कह कर मना कर दिया कि हम किसी अनजान व्यक्ति को अपने घर नहीं ठहरा सकते।
संयोग से उसी समय गांव का एक नवयुवक उधर से गुजर रहा था। सारी बात जानकर वह आदर सहित राजा को रात्रि विश्राम के लिए अपने घर ले आया। उसके साथ केवल उसकी एक बहन ही रहती थी। दोनों भाई बहन बहुत भक्ति भाव वाले और ईश्वर भजन करने वाले थे।

सुबह जब राजा उठा, देखा कि बहन गहन ध्यान में बैठी है। आज उसने रोज़ की तुलना में देर तक पूजा की। जब उसका भाई बोला—बहन, मुसाफिर घर आया है, तू देर से उठी, तो उसने उत्तर दिया—भैया, ऊपर धर्मराज के दरबार में एक जटिल मामला चल रहा था, जिसे सुनने के लिए मुझे ध्यान में बने रहना पड़ा।
धर्मराज की उलझन
भाई ने उत्सुकता से पूछा, - क्या मामला था?
बहन बोली—एक राज्य का राजा रोज़ सौ अंधों को खीर खिलाता था। एक दिन खीर में सांप का विष मिल जाने से सब मर गए। अब धर्मराज के दरबार में यह विचार चल रहा था कि इस हत्या का पाप किसे लगे?
राजा को?
सांप को?
या खीर बिना ढके छोड़ने वाले रसोइये को?
राजा यह सुनकर चौंक गया, क्योंकि यह तो उसी की ही बात थी! उसने लड़की से पूछा, - तो क्या निर्णय हुआ?
लड़की बोली—अब तक कोई निर्णय नहीं हो पाया था।
चौपाल की निंदा
राजा ने एक रात और वहीं रुकने की इच्छा जाहिर की, और भाई-बहन ने खुशी से स्वीकार कर लिया। लेकिन दिनभर चौपाल में बैठे गाँव वालों ने निंदा की बाढ़ ला दी—
कोई कहता, - अरे वह आदमी जवान लड़की को देखकर मोहित हो गया है!
एक अन्य व्यक्ति बोला,- यह पक्का इसी घर में टिकेगा या लड़की को लेकर भाग जाएगा!
पूरे दिन चौपाल में राजा की चरित्रहीनता की बातें होती रहीं।

अगले दिन का न्याय
अगली सुबह लड़की ने पूजा समाप्त की। राजा ने तुरंत पूछा—बेटी, धर्मराज ने क्या निर्णय दिया?
निष्कर्ष – निंदा का असली फल
'निंदा का फल कहानी' हमें सिखाती है कि आलोचना केवल शब्द नहीं, बल्कि कर्म भी है। जब हम किसी की नीयत या चरित्र पर बिना जाने टिप्पणी करते हैं, तो हम अनजाने में उन पापों को अपने ऊपर ले लेते हैं, जो शायद हमने किए ही नहीं।
सीख
निंदा न करें, क्योंकि निंदक दूसरों के पाप का भागी बन जाता है। ध्यानपूर्वक बोलें, क्योंकि शब्दों की शक्ति दृश्य से अधिक होती है। आलोचना से पहले आत्म-मंथन करें, क्योंकि सच्ची भक्ति आलोचना नहीं, करुणा सिखाती है।
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