
भोजन केवल शरीर का नहीं, मन और चरित्र का भी निर्माण करता है। जैसा अन्न खाया जाता है, वैसा ही प्रभाव विचारों और कर्मों पर पड़ता है। यह कहानी एक लालची सेठ की है, जो धर्म और अधर्म के दोराहे पर खड़ा होकर सीखता है कि केवल बाहरी दान-पुण्य से आत्मा शुद्ध नहीं होती, जब तक कि उसकी जड़ें ईमानदारी में न हों। ऐसी ही एक Short Moral Story In Hindi चोरी की खीर - जैसा अन्न वैसा मन।
चोरी की खीर - जैसा अन्न वैसा मन
चोरी और सौदा
सेठ तारक प्रसाद शहर के मशहूर चावल व्यापारी थे। लेकिन उनकी ख्याति जितनी बाहर चमकती थी, अंदर से उतनी ही काली थी।

वे स्टेशन मास्टर से सांठगांठ कर रेलवे मालगाड़ी से चोरी हुए चावल आधी कीमत पर खरीदते थे। दोनों के बीच ये काला कारोबार बड़ी तेजी से चल रहा था।
धर्म का दिखावा
एक दिन सेठ तारक प्रसाद को लगा कि अब बहुत पाप कर लिया, तो क्यों न थोड़ी भक्ति भी कर ली जाए। अपने किए पापों का प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने सोचा कि किसी संत को भोजन कराकर पुण्य कमाया जाए।

साधु का आगमन
साधु रामानंद जी को आमंत्रित किया गया। खीर परोसी गई – वही खीर, जो चोरी के चावलों से बनी थी।

साधु रामानंद जी ने खीर खाई, सेठ के आग्रह पर थोड़ी देर आराम करने को भी तैयार हो गए। उन्हें जिस कमरे में विश्राम कराया गया, वहीं सेठ की तिजोरी भी रखी थी।
जब खीर का असर हुआ
जैसे ही साधु रामानंद जी ने विश्राम किया, उनके मन में एक विचित्र विचार आया। न चाहते हुए भी उनका हाथ तिजोरी की ओर बढ़ गया। तिजोरी की चाबी बाहर लगी थी। उन्होंने एक गड्डी रुपयों की निकाली और अपने झोले में रख ली।
साधु रामानंद जी ने शाम को सेठ को आशीर्वाद दिया और चुपचाप निकल गए।
आरोप और मार
अगली सुबह सेठ ने जब रुपयों की गिनती की, तो एक गड्डी कम निकली। तुरंत नौकरों पर संदेह हुआ। पीटना-धमकाना शुरू हो गया। पूरे घर का वातावरण डर और संदेह से भर गया।
सच्चाई का उजागर होना
दोपहर होते-होते साधु रामानंद जी फिर लौट आए। उन्होंने अपने झोले से वही रुपयों की गड्डी निकाली और सेठ को सौंपते हुए कहा, - नौकरों को मत पीटो, यह मैं ले गया था।

सेठ तारक प्रसाद घबरा गए। और बोले, - महाराज! आप क्यों ऐसा करेंगे? यह जरूर किसी नौकर की हरकत रही होगी और आपको बीच में डाल दिया गया है। आप कितने दयालु हैं, जो उनका दोष अपने ऊपर ले रहे हैं।
साधु का क्रोध और बोध
अब साधु रामानंद जी का चेहरा कठोर हो उठा। उन्होंने गुस्से में कहा, - यह दया नहीं, सत्य है। सच बता, जो खीर तुमने मुझे खिलाई, उसके लिए सामग्री की व्यवस्था तुमने कैसे की?
सेठ ने श्राप के डर से सब कुछ सच-सच बता दिया कि वह स्टेशन मास्टर से चोरी के चावल आधे दामों पर खरीदता है और ऊंचे दाम पर बेच कर पैसे कमाता है। उन्हीं चोरी के चावलों से बनी खीर मैंने आपको खिलाई।
तब साधु बोले - मैंने वही खीर खाई थी जो चोरी के चावलों से बनी थी। और उसी अन्न ने मेरे मन में भी चोरी का बीज बो दिया। जब सुबह वह खीर मेरे शरीर से बाहर निकली, तभी मेरी बुद्धि लौटी और मैंने तय किया कि धन लौटाना ही उचित होगा।

साधु आगे बोले, अगर तुम्हारी खीर ने मुझ जैसे साधु का मन भी डगमगाया, तो सोचो तुम्हारे जैसे साधारण मानव पर क्या असर हो रहा होगा? मैं जानता था, तुम्हारा गुस्सा नौकरों पर गिरेगा, इसलिए स्वयं चला आया। नहीं तो ये धन तो मैं किसी पोखर में फेंक देता।
उपसंहार
जैसा अन्न वैसा मन — यह कहावत केवल कहने भर की नहीं है, इसका असर जीवन में गहराई तक जाता है। चोरी का अन्न, चाहे खीर बनकर परोसा जाए या प्रसाद बनकर दिया जाए, उसका प्रभाव केवल शरीर पर नहीं, मन और आत्मा पर भी पड़ता है।
सेठ तारक प्रसाद को यह बात उस दिन समझ आई, जब एक साधु ने न केवल चोरी का धन लौटाया, बल्कि उन्हें भी आईना दिखाया। अब यह सेठ पर है कि वह अपने व्यापार को पवित्र बनाए या फिर उस अन्न से बने कर्मों का बोझ जीवन भर उठाता रहे।
सीख
भोजन केवल भूख मिटाने का साधन नहीं, बल्कि विचारों का बीज है। उसे जितनी पवित्रता से कमाया जाए, उतना ही निर्मल उसका प्रभाव होता है।
COMPILEAD BY - PUJA NANDA
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